द्रोपदी का रुदन
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भस्म हुआ है गौरव कुल का
मामा शकुनि के पासों में ,
पांडव वीरता धुली जा रही
बीच सभा उपहासों में ,

खड़ी हुई है द्रोप सुता
अथाह हृदय में पीर लिये ,
पूछ रही एक एक से मानो
नयन क्रोध का नीर लिये ,

हे !तात कहो हे! मात कहो
भीष्म पितामह मौन हो क्यों ,
कहां गया आशीष दिया जो
मान हो कुल का सुखी रहो ,

हे !आर्य पुत्र पांडव वीरों
हे मेरे प्राणाधार कहो ,
झुके हुए क्यों मस्तक ऐसे
मुझे देखकर उत्तर दो,

किसने दिया अधिकार तुम्हें
क्यों लक्ष्मण रेखा पार गये
पल भर के अभिमान में जो
मेरा जीवन हार गये

विवाह बेदी पर लिए गए जो
वचन वो एक एक भूल गये ,
प्रेम नेह तो बात बड़ी है
मानवता भी भूल गये,

लिखी जायेगी जब गाथा
स्थान भला क्या पाओगे ,
हे धर्मराज इतिहास में तो
निर्लज्ज भीरू कहलाओगे ,

हे माधव क्या तुम समझ रहे
है पीड़ा जो मेरे मन की ,
शरण जो ले लो तो दे दूं
आहुति तत्क्षण जीवन की ,

हे दसो दिशाओं साक्षी बनो
लेती हूं इसी पल मैं प्रण ये ,
केश नहीं बांधूंगी जब तक
कौरव वंश का दीप जले ,

इस दुशासन के बहते लहू से
करना है स्नान मुझे ,
जब तक लहू से शुद्ध ना होंगे
यूं ही रहेंगे केश खुले ।

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सपना सक्सेना
ग्रेटर नोएडा

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